एक गरीब बढ़ई का बेटा, शिक्षा के नाम पर जिसने एक टूटी हुई पेंसिल भी कभी हाथ में ना पकड़ी हो, किसे पता था वह एक दिन भारत का नाम विश्वभर में उज्जवल कर जाएगा। रफीक खान नाम था उनका, पेट भरने के लिए वह खुद बढ़ई का काम करते थे। शतरंज में दिलचस्पी थी, पता नहीं क्यों यह खेल उन्हें बार बार अपनी ओर आकर्षित करता। अपनी मन की इच्छा पूरी करने के लिए, जैसे-तैसे उन्होंने कहीं-कहीं से इसे खेलना सीखा।
और यह शायद किस्मत ही थी कि उन्होंने शतरंज खेलना सीखा, क्योंकि आगे चलकर यही भोपाल के रफीक खान भारत के अब तक के सबसे बेहतरीन शतरंज खिलाड़ियों में से एक बन गए।
1976 में जब खान ने 13/15 के बड़े स्कोर के साथ राष्ट्रीय बी चैंपियनशिप जीती, तब पहली बार चेस कम्युनिटी का ध्यान इनकी ओर गया। इसके तुरंत बाद, उन्होंने राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीतने के लिए इस खेल के धुरंधर माने जाने वाले एक खिलाड़ी को हरा दिया!
लेकिन अब भी उनकी आर्थिक स्थिति तंग ही थी, बढ़ई का काम करके उनके पास उतने पैसे नहीं आते थे, जिससे वह अपना घर भी चला ले और आगे शतरंज खेलना जारी भी रखे।
कुछ दिनों बाद, उनकी कहानी किसी मैगज़ीन में छपी जिसे पढ़ने के बाद इंडस्ट्री मिनिस्टर जॉर्ज फर्नांडिस ने उन्हें भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड में नौकरी दी।
यह नौकरी उस वक्त खान के आत्मविश्वास को बढ़ाने का माध्यम बनी, क्योंकि इसकी उन्हें सख्त जरूरत थी। और इसी आत्मविश्वास के दम पर उन्होंने 1980 में इतिहास रचा था। माल्टा में हुए चेस ओलम्पियाड में, वह पहले भारतीय बने जिन्होंने भारत के नाम रजत पदक जीता था। उनसे पहले यह कोई भी नहीं कर पाया था।
अचानक सभी को यह विश्वास होने लगा कि भारतीय न केवल शतरंज में हिस्सा ले सकते हैं, बल्कि जीत भी सकते हैं।
ग्रैंडमास्टर प्रवीण थिप्से कहते हैं, "ओलंपियाड में एक गैर-यूरोपीय खिलाड़ी के लिए एक पदक जीतना कुछ ऐसा था, जिसके बारे में कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था"
जब खान भारत में अपने घर भोपाल लौटे तो उनका एक हीरो की तरह स्वागत किया गया। इसके बाद, उन्होंने कभी भी शतरंज खेलना नहीं छोड़ा। वह अपनी आखिरी सांस तक खेलते रहे। फिर भी समय ने इस महान खिलाड़ी की पहचान पर इस तरह धूल बिछा दी है कि आज इन्हें और इनकी कहानी को बहुत कम ही भारतीय जानते हैं।
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