1857 से लेकर 1947 तक बहुत सारे मुस्लिमों ने देश के लिए जान लुटाई, फिर भी हिन्दू लोग मुस्लिमों को गद्दार ही क्यों मानते हैं?


एक कड़वी सच्चाई बताने जा रहा हूं।

मेरा मित्र जो की मुस्लिम था ,ने मुझे ईद के दिन सेवइयां खाने के लिए आमंत्रित किया बड़े प्यार से। मैं भी उतने ही प्यार से गया, बचपन का मित्र जो ठहरा।

सेवईयां आई हम दो लोग खा ही रहे थे उतने में एक और मुस्लिम मित्र का ( मुस्लिम) आगमन हुआ , हम सभी तीनों साथ ही पढ़े,खेले बढ़े थे। सेवइयां उसके लिए भी आईं, लेकिन ये क्या उसके लिए प्लेट में अलग प्रकार की सेवईयां थी। जो की हमारे से बेहतर थी। बाद में एक मूल्ला जी आए उनके लिए भी वही उसकी वाली ।

ये भेदभाव इसके लिए क्योंकि हम मुस्लिम नही थे। ये आजाद भारत के बचपन के दोस्त के लिए एक मुस्लिम दोस्त के विचार थे जो सेवइयों के रूप में सामने थे। हम मांगने नहीं गए थे उसने प्यार से बुलाया हमने भी उतने ही प्यार से निमंत्रण स्वीकार किया था भरोसा किया था

उसके बाद मैं कभी भी सेवईयां खाने नही गया ।हम तब भी उससे बेहतर बना के खाते थे और अब भी। लेकिन बात भरोसे की थी।

फिल्मों में अच्छा दिखाने से सोच नही बदल जाती ,न बदलनी चाहिए। अनुभव महत्वपूर्ण होते है। मैने रिश्ता तो नही तोड़ा उससे लेकिन कभी भरोसा नहीं करता, even आज भी।

सभी तो नही लेकिन अधिकतर भरोसे के काबिल नही होते ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है उनके लिए इस्लाम की सोच ही सर्वोपरि है मनुष्य नही।

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