मृत्युभोज पाप है इसलिए बन्द करो, लेकिन हनीमून बहुत बड़ा पुण्य है इसको मनाने विदेश जाओ,

मृत्युभोज पाप है इसलिए बन्द करो, शादी में खर्च करना पाप है इसलिए कोर्ट मैरिज करो। 

लेकिन हनीमून बहुत बड़ा पुण्य है इसको मनाने विदेश जाओ पैसा लुटाओ क्योंकि हनीमून से हजारों गरीबों का पेट भरता है।

मतलब परिवार, रिश्तेदार, गाँव-समाज, पड़ोसी गाँव के परिचित व्यक्ति, पिताजी के हितैषी और व्यवहारियों को एकजुट करना, उनसे मिलना तथा पीढ़ियों से चले आ रहे व्यवहार को अगली पीढ़ी में सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए मृत्युभोज या शादी के न्यौते दिए जाते हैं। ताकि हम समझ सकें कि हमारी रिश्तेदारियाँ कँहा कँहा है, हमारे पुरखों के सम्बंध व्यवहार कँहा कँहा और किन किन लोगों से हैं। 

इसलिए मिलने वाले लोग कुछ भेंट लेकर जाते हैं और उस भेंट को एक डायरी में लिखा जाता है ताकि याद रहे कि हमारे परिवार के सम्पर्क कँहा कँहा किन किन लोगों से हैं। 
वैसे तो लोग अपनी निजी जिंदगी में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें पता ही नहीं होता है कि उनके अपने कौन कौन है। इसलिए ऐसे ही कुछ कार्यक्रम होते हैं जँहा अपनों से भेंट हो पाती है। 

आज इन समाजिक और मानवीय व्यवस्था को तोड़कर मनुष्य को एकांकी बनाने पर जोर दिया जा रहा है। अब 2 बच्चे ही अच्छे के कारण परिवार और रिश्तेदार वैसे भी सीमित हो गए हैं ऐसे में सामाजिक व्यवहार ही एकदूसरे मनुष्य के सहायक हो सकते हैं अगर उनसे भी दूर कर दिया गया तो मुसीबत के समय कौन खड़ा होगा अपनों के साथ?? 

आज हम लोग पार्टी करते हैं तो कुछ अपने दोस्तों को बुलाकर इंजॉय करते हैं क्योंकि अच्छा लगता है। लेकिन ये कभी नहीं सोचते की ये भोज भी एक तरह की पार्टी होते हैं जँहा हमारे रिश्तेदार एकजुट होते हैं और न जाने कितनी पीढ़ियों के व्यवहार और रिश्तेदारियों का नवीकरण होता है। 

आज अगर इसी तरह से एकांकी जीवन पर जोर दिया जाता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब मानसिक अशांत लोगों की संख्या बहुत अधिक होगी, आत्महत्या के मामले बहुत अधिक होंगे। 

आज की पीढ़ी अपनी मस्ती में इतनी व्यस्त होती है कि उसको कुछ प्रमुख रिश्तेदार को छोड़कर 2-3 पीढ़ियों की रिश्तेदारी तक याद नहीं होती है। साथ ही साथ पिता के कुछ जान-परिचितों को छोड़कर दादा-परदादा के व्यवहारियों तक का पता नहीं होता है। आसपास के 10-15 गाँव में हमारी जाति के तथा हमारे परिचित के कौन कौन व्यक्ति है ये तक पता नहीं होता है। 

लेकिन जब मृत्युभोज होता है तो ऐसे सभी परिचितों को मिलने समझने का मौका मिलता है और पीढ़ियों से चले आ सम्बन्ध अब हमको आगे लेकर चलना है ये सीख मिलती है। 
हमारे यँहा मृत्युभोज में जाने के लिए बड़े-बूढ़े अधिक जोर देते हैं क्योंकि परिचित का व्यक्ति चला गया है अब उसकी अगली पीढ़ी से परिचय बहुत जरूरी है ताकि सम्बन्ध बने रहें ऐसी धारणा है। लोग खाने के भूँखे नहीं होते हैं बल्कि समाजिक भावना का ध्येय होता है वैसे भी नियम होता है कि आयु और पद में छोटे की मृत्यु पर खाना नहीं खाते हैं। 

हमें बचपन से पढ़ाया जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन समाजिक भावना का जिस प्रकार लोप हो रहा है उस हिसाब से मनुष्य के अस्तित्व पर खतरा बढ़ता जा रहा है। हमारे पूर्वज बहुत बुद्धिमान थे जिन्होंने ऐसी व्यवस्थाएं बनाई थी जिनमें समाजिक भवनायें पोषित होती रहें लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ में हम अपने पूर्वजों की दूरदर्शिता को समझे बिना ही मूर्खता की ओर भागे जा रहे हैं। 
  संग्रहित लेख निजी नहीं
।।धन्यवाद।।

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